"मैं बहता चला" एक गहरे पर्यावरणीय संदेहों और समाजिक चुनौतियों के साथ जी रही नदी पर रचित कविता है, जिसे मैंने अपने शब्दों में बयान किया है। यह कविता पानी के संघर्ष, और उसके साथी वातावरण की परिणामकारी बदलती हुई धारा को आत्मसात करती है।
एक अद्वितीय पारिदृश्य से, "मैं बहता चला" नामक कविता नदी की आत्मकथा है, जिसमें हर कदम पर उसकी मुश्किलें, प्रतिबंधकों, और आपदाएँ दिखाई देती हैं।
शब्दों की धारा में बहकर, यह कविता पहले नदी के उच्चतम स्थानों से निकलती है, जंगलों और पहाड़ों के माध्यम से गुजरती है, और इस सफर में आगे बढ़ती है। यह कविता पानी के साथ जुड़े हर एक पल को एक समझदार और चेतन तथ्य के रूप में दिखाती है।
कविता विकसित होती है जब नदी अपने सारे सौंदर्य को खोकर, प्रदूषित होकर अपनी यात्रा को समाप्त करती है। इस प्रक्रिया में, यह साफ हो जाता है कि मानव गतिविधियों का पर्यावरण पर कैसा प्रभाव होता है।
इस कविता से हमें ये पता चलता है कि जब प्राकृतिक स्रोतों को अन्यायपूर्ण रूप से बदल दिया जाता है, तो उसका परिणाम हमारी आत्मगति पर कैसा होता है। "मैं बहता चला" एक संवेदनशील कविता है जो हमें इस बात पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है की हमें अपनी प्राकृतिक संस्कृति की रक्षा करना चाहिए।
मैं बहता चला, मैं गिरता चला, नदियों से, झरने से मैं बहता चला,
सफेद बर्फ़ की चादर से निकलकर, पिघल-पिघलकर मैं चलता चला,
ऊंचे पहाड़ों से, ऊंचे किनारों से, झरने के सहारे तो कभी जंगल के नज़ारे,
गिरते-फिसलते तो कभी पत्थरों से गुजर कर, मचल-मचलकर मैं चलता चला,
सोचा की जाकर दुनिया से मिलूंगा,
लोगों को खुश कर, सागर में गिरूंगा,
खत्म होगी कहानी इस पानी की पानी में,
पर मुझे क्या पता था कि मेरा नसीब कहां था,
पहाड़ों से उतरा, जंगलों से गुजरा,
जो बस्ती में पहुंचा तो मेरा नक्शा ही बदला,
कहीं पानी की बोतल, तो कहीं कचड़े के ढेर, फेंकें मुझमें ये कैसा मुझसे बैर,
कहीं गंदे से नाले, तो कहीं पानी के लाले,
लोगों ने मुझको कूड़ा घर समझा,
मैं देता हूं जीवन, ये भूल गए क्या? या मुझको ये पीना छोड़ गए क्या?
या हैं नसमझ सब जानकर भी? मुझसे इनका है बैर क्या?
मुझे काटा, मुझे बांटा, तो कहीं बहने से रोका,
आकर नीचे मुझे मिला ऐसा धोखा,
मेरी हालत कर दी खराब,
देखना एक दिन देना पड़ेगा हिसाब,
मुझे सताकर तुम कब तक जियोगे,
मेरे बग़ैर तुम कैसे रहोगे,
मैं पानी जिस दिन चला जाऊंगा,
देख लेना तुमको बहुत याद आऊंगा,
जी नहीं पाओगे मेरे बिना तुम,
घुट-घुट जीयोगे मेरे बिना तुम।
मुझे उम्मीद है कि इस कविता ने आपको मेरा संदेश दिया है कि हमें अपने परिवेश और पर्यावरण का ख्याल रखना चाहिए क्योंकि यह हमारी जीवन रेखा हैं और उनका योगदान हमारी दुनिया में बहुत मायने रखता है। हमें अपनी प्रकृति के प्रति अधिक सावधान रहना चाहिए क्योंकि इसके बिना हर जगह नरक है।
अगर ये कविता आप तक पहुंचने में कामयाब होती है तो कृपया अपने चाहने वालों के साथ भी शेयर करें और इस पर अपना नजरिया कमेंट करें।
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