Poetry on Nation | Patriotism | "कल की बात थी, एक चिठ्ठी आई थी"
A poetry for nation dedicated to the brave hearts, to the soldiers of the country.
कल चिट्ठी आई थी, साथ नया तोहफा लाई थी,
उसने खोल के देखा तो उसके लिए उसकी वर्दी आई थी।
उसके चेहरे की खुशी को बयां वह मां नहीं कर पाई,
जो जानती थी साथ वो कुछ दूरियां भी लाई थी।
पहन कर उसे, वो तनकर उठा,
बड़े फक्र के साथ आइने के सामने खड़ा था।
बाबा तैयारियां कर रहे थे, मां उसका डब्बा बांध रही थी,
कुछ घंटे बाद उसको घर से जो जाना था।
छू कर के पैर मां और बाबा के,
गले लगाकर कसकर आखरी बार वो निकला था।
पड़े पैर सरजमीं की मिट्टी पर जब,
वो बैठा जमीं पर, उसे माथे पर सजा लिया।
मगन हो गया वतन कि रखवाली में इस कदर,
घर पर बैठी बूढ़ी मां को भूल गया।
कई साल तक कुछ चिठ्ठियां उसने इकठ्ठा करी थीं,
बाबा के प्यार और मां के दुलार से भरी थीं।
हर बार की तरह, उंतालिश बार भी वही सवाल था,
उसके घर वापस लौटने का जवाब मांगता था।
हुआ था तैयार, घर जाना था वापस,
एक चिठ्ठी के ज़रिए आने का पैग़ाम भिजवाया था।
वो दोपहर धूप भरी थी, बाबा बैठे थे आंगन में,
जब एक डाकिया एक ख़त ले आया था।
"मां थोड़ा देर लगेगी घर आने में मुझको,
तू फिकर ना कर, मैं बिल्कुल सही हूं।"
"तेरे भिजवाई पित्ठी मेरे साथी चट कर गए हैं,
मां थोड़ा और भिजवा दे, इंतज़ार ना करना।"
वो थी थोड़ा उदास हुई, आंखों में थी कुछ नमी भरी,
मगर उठ खड़ी हुई, पोछ उन्हें, रसोई में चली गई।
बड़े प्यार से बनाया, एक चिठ्ठी के साथ था बांधा,
उसने बस अभी बाबा को वो भिजवाने को ही तो थमाया था।
हुई दस्तक, जब दरवाज़ा खुला तो कुछ फौजियों ने पता पूछ लिया,
वो अंदर आए बिना कुछ बोले, शांति से एक बस्ता थमा दिया।
कुछ चिट्टियां पड़ी थीं, मां की चुन्नी से बंधी थीं,
एक वर्दी थी जिसपर उसका नाम लिखा था।
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