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Hindi Poetry | हिंदी कविता
"जैसा बोया है, वैसा ही तो पाओगे"
जैसा बोया है, वैसा ही तो पाओगे,
नफरत बटोगे, तो नफरत ही तो पाओगे,
जिन हाथों ने सिर्फ कुल्हाड़ी उठाना सीखा हो,
उस कुल्हाड़ी को त्याग कर तुम पेड़ कैसे लगाओगे।
सांस लेने के लिए जिनकी जरूरत होती है,
काट कर उन्हें तुम क्या जी पाओगे?
जानबूझ कर आंख पर पट्टी क्यों बांधी है?
जैसा बोया है, वैसा ही तो पाओगे।
खेलते रहे जीवन के साथ, परोपकार का मतलब ना समझे,
बिना किसी लालच के देना, तुम प्रकृति से न सीखे,
जिस धरती ने तुम्हें पाला, तुम उसको जलाओगे,
तो कैसे मांग सकते हो न्याय, जब अन्याय जताओगे।
हरी भरी जगमगाती दुनिया को,
जिस धूल धक्कड़ और ज़हर से भरा हो तुमने,
अपने कर्मों का हिसाब यहीं तो चुकाओगे,
जन्नत मांगी थी तुमने, अब अपने बसाए स्वर्ग से निकलकर कहां जाओगे?
मिटा कर वजूद दुनिया की खूबसूरती का,
तुमने सोचा तुम रोशनी के दिए जलाओगे,
समय अभी गुज़रा नहीं है, जो बचा है उसे संभाल जो लोगे,
तो हो सकता है नया सवेरा देख पाओगे।
क्यों डर रहे हो अपने आज से इस कदर,
जो हो रहा है तुमने ही तो बनाया है,
क्यों बेहाल हो दुनिया के हाल से,
जैसा बोया है, वैसा ही तो पाओगे।
उम्मीद करती हूं आपको यह कविता पसंद आई होगी और आप इस कविता का उद्देश्य समझ गए होंगे।
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